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Thursday, November 17, 2011

आरटीआई अधिकार का होता ‘कत्ल’

शहला मसूद और नदीम सैयद की हत्या सिर्फ इसलिए की गई कि वो सूचना के अधिकार के लिए काम करते थे। उनका दोष सिर्फ इतना था कि वे दोनों आरटीआई कार्यकर्ता थे। अपना दर्द छोड़ दूसरों का दुख-दर्द बांटने की कोशिश करते थे। मैंने इन दो नामों की चर्चा इसलिए की क्योंकि अभी आप इन्हें भूले नहीं होंगे।

चलिए अब आंकड़ों पर नजर डालते हैं। जनवरी 2010 से अगस्त 2011 तक 12 आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या की जा चुकी है। इस फेहरिस्त में एक हत्या पुलिसकर्मी की भी की गई। उत्तर प्रदेश के एक जिले में कार्यरत होमगार्ड बाबू सिंह सरकारी फंड के बारे में आरटीआई के माध्यम से जानकारी चाहता था, लेकिन 25 जुलाई 2010 को यूपी के कटघर गांव में उसकी हत्या कर दी गई। बताया जाता है कि सरकारी फंड में जानकारी की चाहत की वजह से उसे मौत को गले लगाना पड़ा। वर्ष 2010 के कुल आंकड़ों पर नजर डालें तो 28 आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हमले हुए जिसमें 10 लोगों को जान से हाथ धोना पड़ा।

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में इसी साल 16 अगस्त को भोपाल के कोह-ए-फिजा इलाके में आरटीआई कार्यकर्ता शहला मसूद की हत्या कर दी गई। शहला के हाईप्रोफाइल संबंधों के बाद मामले ने तूल पकड़ा और घटना के तीसरे दिन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सीबीआई जांच की सिफारिश कर दी, लेकिन अफसोस कि कातिल अब भी पकड़ से बाहर हैं।

गोधरा कांड के बाद नरोदा पाटिया में हुए दंगों के मामले में अहम गवाह व आरटीआई कार्यकर्ता 38 वर्षीय नदीम सैयद की 5 नवंबर को हत्या कर दी गई। नदीम ने अपनी हत्या की आशंका भी जताई थी। झारखंड के लातेहार जिले में 3 मार्च, 2011 को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना यानी मनरेगा को लागू करने के लिए काम कर रहे एक आरटीआई कार्यकर्ता की हत्या कर दी गई। नियामत अंसारी नाम के इस कार्यकर्ता को घर से निकालने के बाद पीटा गया जिसके बाद घायल नियामत अली को अस्पताल ले जाया गया जहां उनकी मौत हो गई। इसका दोष इतना था कि वह महात्मा गांधी मनरेगा के तहत निर्धारित मजदूरी का हक दिलाने के लिए लड़ता था।

क्यों बना सूचना का अधिकार कानून
भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां सबको अपनी बात कहने की आजादी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था की बात करें तो आम आदमी ही देश का असली मालिक होता है। जनता को यह जानने का हक है कि जो सरकार उसकी सेवा के लिए बनाई गई है। वह क्या, कहां और कैसे काम कर रही है। इसके साथ ही हर नागरिक इस सरकार को चलाने के लिए टैक्स देता है, इसलिए भी नागरिकों को यह जानने का हक है कि उनका पैसा कहां खर्च किया जा रहा है। जनता को यह सब जानने का अधिकार ही सूचना का अधिकार है।

1976 में राज नारायण बनाम उत्तर प्रदेश मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद-19 में वर्णित सूचना के अधिकार को मौलिक अधिकार घोषित किया। अनुच्छेद-19 के मुताबिक हर नागरिक को बोलने की स्वतंत्रता और जानने का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम आदेश में कहा कि जनता जब तक जानेगी नहीं तब तक उसे अभिव्यक्त नहीं कर सकती। 2005 में देश की संसद ने एक कानून पारित किया जिसे सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के नाम से जाना जाता है। इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गई है कि किस प्रकार नागरिक सरकार से सूचना मांगेंगे और किस प्रकार सरकार उसके लिए जवाबदेह होगी।

सूचना का अधिकार अधिनियम हर नागरिक को अधिकार देता है कि वह सरकार से कोई भी सवाल पूछ सके या कोई भी सूचना ले सके, किसी भी सरकारी दस्तावेज की प्रमाणित प्रति ले सके, किसी भी सरकारी दस्तावेज की जांच कर सके, किसी भी सरकारी काम की जांच कर सके, किसी भी सरकारी काम में इस्तेमाल सामग्री का प्रमाणित नमूना ले सके।

इस अधिकार से कई लोग जुड़े। इसका दायरा बढ़ा। अन्ना आंदोलन के अहम सदस्य अरविंद केजरीवाल सूचना के अधिकार से ही जुड़े रहे और इसके लिए उन्हें दुनियाभर में प्रतिष्ठित पुरस्कार मैग्सेसे अवार्ड से नवाजा गया। मेरा कहना सिर्फ इतना है कि सूचना के अधिकार का मतलब क्या अपनी जान को खोना है। एक या दो नहीं बल्कि क्रूर हत्याओं के ये आंकड़े दहाई को संख्या को पार कर ये दर्शातें है कि सरकार ने कानून तो बनाया, लेकिन उसके लिए काम कर रहे लोगों की सुरक्षा का ख्याल रख पाने में नाकाम रही।

सूचना के अधिकार कानून से पहले एक घटना शायद आपको याद होगी। आईआईटी के इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की 2003 में बिहार के गया में हत्या की गई थी। दुबे ने स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना में घोटाले का राजफाश करने की कोशिश की थी।सत्येंद्र दुबे ने भारत की सबसे बड़ी सड़क परियोजना में घोटाले का भंडाफोड़ करने की कोशिश की और प्रधानमंत्री तक को चिट्ठी लिख कर वहां चल रही धांधलियों के बारे में बताया, लेकिन 27 नवंबर, 2003 को वह जब तड़के बिहार के गया शहर में अपने घर जा रहे थे, तभी उनकी गोली मार कर हत्या कर दी गई।

जितने भी लोगों की जानें गई उनमें से किसी ने भी यह नहीं सोचा होगा कि उन्हें जीवन से हाथ धोना होगा। सरकार को इस सिलसिले में ठोस और सार्थक पहल करनी होगी ताकि सूचना के अधिकार के लिए कार्यरत लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित हो सके। सूचना के अधिकार पर काम कर गरीब-गुरबों और जरूरतमंदों को हक दिला रहे हैं। यह बात समझा जाना चाहिए। कोई व्यक्ति सिर्फ अपने हितों की खातिर ही नहीं बल्कि दूसरे के हक के लिए लड़ रहा है। सरकार को समय रहते यह बात समझनी होगी। सूचना के अधिकार में यह सुनिश्चित हो कि जो व्यक्ति इससे जुड़ा है उसकी जान की हिफाजत हो ताकि वह निर्भीक होकर अपना काम कर सकें। अमुक व्यक्ति दूसरे के अधिकारों के लिए निर्भीकता से लड़ सके, यह तभी होगा जब सरकार जागेगी।-स्त्रोत/साभार : संजीव कुमार दुबे, जी न्यूज डोट कॉम, १७.११.११  

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