यदि आपका कोई अपना या परिचित पीलिया रोग से पीड़ित है तो इसे हलके से नहीं लें, क्योंकि पीलिया इतन घातक है कि रोगी की मौत भी हो सकती है! इसमें आयुर्वेद और होम्योपैथी का उपचार अधिक कारगर है! हम पीलिया की दवाई मुफ्त में देते हैं! सम्पर्क करें : 0141-2222225, 98285-02666

Monday, December 19, 2011

आरटीआई कानून आने के बाद निगरानी से बढ़ी जवाबदेही!

यह महज संयोग ही था कि मैंने सूचना और उस तक लोगों की पहुंच के अधिकार की शक्ति को महसूस किया. घटना 2001 की है. दिल्ली के एक बहुत परेशान नागरिक अशोक गुप्ता एक दिन परिवर्तन में आए.
परिवर्तन एक एनजीओ है जिसका गठन हमने 2000 में शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए किया था. गुप्ता को दो साल से बिजली का कनेक्शन नहीं मिला था क्योंकि उन्होंने दिल्ली विद्युत बोर्ड के अधिकारियों को घूस देने से मना कर दिया था.
हमने उन्हें दिल्ली सरकार के नवप्रभावी सूचना का अधिकार (आरटीआइ) कानून के तहत आवेदन करने की सलाह दी. दिल्ली सरकार ने केंद्र सरकार से चार साल पहले 2001 में आरटीआइ लागू किया था. आरटीआइ की शक्ति आजमाने का यही मौका था.
गुप्ता आरटीआइ के जरिए दिल्ली विद्युत बोर्ड के उन अधिकारियों के नाम जानना चाहते थे जो उनके आवेदन को दबाकर बैठे हुए थे. उन्हें नाम तो नहीं मिले, लेकिन उनके यहां बिजली का कनेक्शन तुरंत लग गया. इससे मुझे पता चला कि नागरिकों के सशक्तीकरण के कितने फायदे हैं. मैं लंबी छुट्टी पर चला गया और आरटीआइ के लिए जोर-शोर से अभियान चलाने लगा और फरवरी, 2006 में सरकारी नौकरी छोड़ दी.
इस बीच, केंद्र ने जून, 2005 में आरटीआइ कानून लागू कर दिया था. आरटीआइ के लिए देशभर में लंबे समय तक चले अभियान में एक्टिविस्ट अरुणा रॉय ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
सूचना के अधिकार को कानूनी मान्यता मिलने के बाद उसे लागू करने में हमें तीन दशक लगे. सन्‌ 1975 में सुप्रीम कोर्ट ने राजनारायण बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में फैसला दिया था कि अभिव्यक्ति के अधिकार में सूचना का अधिकार अंतर्निहित है. इसके बाद कई आंदोलन शुरू हो गए.
पहला आंदोलन '90 के दशक के शुरू में मजदूर-किसान शक्ति संगठन ने रॉय के नेतृत्व में राजस्थान के गांवों के खातों में पारदर्शिता लाने के लिए चलाया. '90 के दशक के मध्य में, महाराष्ट्र में अण्णा हजारे ने आंदोलन की अगुआई की. तमिलनाडु पहला राज्य था जिसने 1997 में आरटीआइ कानून लागू किया. इसके बाद दूसरे राज्यों ने अपना-अपना आरटीआइ कानून लागू किया.
आरटीआइ कानून के रूप में सामान्य लोगों को एक सशक्त और कारगर औजार मिल गया है. ऐक्टिविस्ट और एनजीओ आरटीआइ का इस्तेमाल सरकार की नीतियों और उनके कार्यान्वयन पर सवाल उठाने के लिए करते रहे हैं. इसने अधिकारियों की नींद हराम हो गई है.
सरकार का अब मानना है कि उसने आरटीआइ के रूप में अपने लिए एक बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी है जिससे सामान्य शासन का काम बाधित हो रहा है.
दरअसल, अधिकारी फाइलों पर कुछ लिखने और फैसले लेने से बचने लगे हैं. शुरू में आइबी, रॉ, राजस्व खुफिया तथा प्रवर्तन निदेशालय जैसी खुफिया एजेंसियों और केंद्रीय पुलिस संगठनों को ही इससे छूट मिली हुई थी. लेकिन अब कई अन्य एजेंसियां भी अपने को इस कानून के दायरे से बाहर रखने की मांग कर रही हैं.
हाल में सीबीआइ और आयकर विभाग की जांच शाखा को इससे छूट मिल गई. खुफिया इकाइयों को आरटीआइ से अलग रखा जा सकता है, लेकिन जांच शाखाओं को बिल्कुल नहीं.
आरटीआइ के पास सरकारी एजेंसियों पर चाबुक फटकारने की शक्ति है. इसलिए वे सभी इसका विरोध कर रही हैं. आरटीआइ अभी अपनी पूरी क्षमता हासिल नहीं कर पाया है.
समस्या यह है कि अपने राजनैतिक आकाओं के प्रति निष्ठावान सूचना आयुक्त इसकी राह में रोड़ा बने हुए हैं. आरटीआइ कानून अपनी पूरी क्षमता तभी हासिल कर सकता है जब तटस्थ और निष्पक्ष लोगों को सूचना आयुक्त और मुख्य सूचना आयुक्त नियुक्त किया जाए.
अरविंद केजरीवाल, आरटीआइ आंदोलन के नेताओं में शुमार रहे हैं. अब वे जन लोकपाल विधेयक के लिए लड़ रहे हैं. भावना विज अरोड़ा से बातचीत पर आधारित.-अरविंद केजरीवाल | सौजन्‍य: इंडिया टुडे | नई दिल्ली, 18 दिसम्बर 2011, AAj Tak

No comments:

Post a Comment

Followers

Blog Archive