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Monday, May 7, 2012

आरटीआई से मिले पासपोर्ट इंफार्मेशन : सीआईसी

आरटीआई से मिले पासपोर्ट इंफार्मेशन : सीआईसी

पीटीआई ॥ नई दिल्ली : सेंट्रल इंफार्मेशन कमिशन (सीआईसी) ने पासपोर्ट से जुड़ी जानकारियों को लेकर एक अहम फैसला दिया है। सीआईसी का कहना है कि पासपोर्ट बनवाते वक्त किसी व्यक्ति ने जो निजी जानकारियां दी हैं उसे आरटीआई के तहत हासिल किया जा सकता है। 

इंफार्मेशन कमिश्नर शैलेश गांधी ने कहा, शासन प्रणाली की खामियों और तेजी से बढ़ते करप्शन को देखते हुए यह जरूरी है कि निजता के मुकाबले लोगों के सूचना के अधिकार को ज्यादा अहमियत दी जाए। सीआईसी ने यह आदेश अनिता सिंह की तरफ से दाखिल आरटीआई अर्जी पर दिया है। अनिता ने अर्जी में मांग की थी कि अजित प्रताप सिंह नाम के एक शख्स ने पासपोर्ट बनवाने के लिए जो कागजात दिए हैं उसकी जानकारी उन्हें दी जाए। इससे पहले, विदेश मंत्रालय ने कहा था कि थर्ड पार्टी का विचार जाने बिना उससे जुड़ी जानकारियों का खुलासा नहीं किया जा सकता। चूंकि, थर्ड पार्टी का वर्तमान आवासीय पता मालूम नहीं है| इसलिए उसका विचार लेना संभव नहीं है। इस पर गांधी ने कहा कि अगर थर्ड पार्टी का पता मालूम नहीं है तो इसका मतलब यह नहीं है कि सूचना का अधिकार काम नहीं करेगा। 
Source : Nav Bharat Times, 7 May 2012, 0900 hrs IST 

Tuesday, March 13, 2012

1.30 लाख का आरटीआई का जवाब!

Mon Mar 12 2012 19:49:49 GMT+0530 (India Standard Time)

क्या आरटीआई के जबाब की क़ीमत 1 लाख 30 हज़ार हो सकती है। प्रशासन के करप्शन को उज़ागर करने के लिए आम जनता को जिस आरटीआई क़ानून का अधिकार मिला है, उसके लिए जनता से वसूले जा रहे हैं लाखों रुपये।

कल्याण इलाक़े में एक आरटीआई एक्टीविस्ट ने आरटीआई के तहत जनकारी मांगी तो उसे 1 लाख 30 हज़ार रुपये का बिल थमा दिया गया है। कल्याण में रहने वाले 40 साल के संजय भलिका एक केस मे 43 दिनों के लिए आदारवाडी जेल में बंद थे।

इस दौरान उन्होंने वहां क़ैदियों को दिए जाने वाले खाने के बारे में हो रही गड़बडि़यों को क़रीब से देखा। जेल से छूटने के बाद उन्होंने इसका पर्दाफ़ाश करने के मक़सद से आरटीआई के ज़रिए पिछले 10 साल की जानकारी मांगी।-P-7 News

जेल प्रशासन ने क़ाग़ज पत्रों की जेरॉक्स प्रति उपलब्ध कराने के लिए मांगे 1 लाख 29 हज़ार 814 रुपये। जेल प्रशासन के मुताबिक जो जानकारी मांगी गई हैं, वह 12500 पेज में समाहित है।

हालांकि अगर जेल प्रशासन चाहे तो जो जानकारी मांगी है, उसे सीडी में भी दिया जा सकता है, जिसमें मामूली ख़र्च आता है।-

Thursday, March 8, 2012

निजी सूचना मांगने पर 50000 जुर्माना

नई दिल्ली, गुरूवार, 8 मार्च 2012( 00:00 IST ) दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक व्यक्ति द्वारा अपने भाई के खिलाफ ‘बदले की भावना’ से आरटीआई के तहत बिक्री कर रिटर्न के बारे में सूचना मांगने पर उस व्यक्ति पर 50000 रुपए का बुधवार को जुर्माना लगाया।

न्यायालय ने कहा कि व्यक्ति द्वारा बिक्री कर रिटर्न के बारे में मांगी गई सूचना की प्रकृति ‘निजी’ थी और पारदर्शिता कानून के तहत यह नहीं दी जा सकती।

कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश एके सीकरी और न्यायमूर्ति राजीव सहाय एंडला की पीठ ने कहा कि इस मामले की समीक्षा करने पर हमारा मानना है कि एक व्यक्ति के बिक्री कर रिटर्न दाखिल करने पर सूचना का, सूचना का अधिकार कानून के तहत उचित संरक्षण किया जाता है और यह उपलब्ध नहीं कराया जाना सही है।

इस तरह से पीठ ने याचिकाकर्ता अशोक कुमार गोयल पर 50000 रुपए का जुर्माना लगाया और कहा कि जुर्माने की राशि दिल्ली विधि सेवा प्राधिकरण के पास जमा की जाएगी। (भाषा)

निजी सूचना मांगने पर 50000 जुर्माना, Hindi Web Dunia 

Thursday, March 1, 2012

आरटीआई से लटकी नौकरी पर तलवार

ब्रजेश पाठक, सासाराम : सूचना का अधिकार ने बड़ों-बड़ों की हेकड़ी बंद कर दी है। भ्रष्टाचार पर वार के बाद अब फर्जी तरीके से नौकरी पाए लोगों पर भी शिकंजा कसना शुरू हो गया है। महादलित का प्रमाण लगा वर्षो से नौकरी का आनंद ले रहे शख्स की 'आरटीआई' ने पोल खोल कर रख दी है।

संपूर्ण क्रांति मंच से जुड़े संजय कुमार दीपक ने सिंचाई विभाग में 1993 से कार्य कर रहे सूर्यदेव राम की जाति का आरटीआई से जानकारी मांगी। जानकारी हाथ आते उनके पैर तले जमीन ही खिसक गई। नोखा के सीओ द्वारा पत्रांक 747 के तहत दी गई जानकारी में सूर्यदेव राम को ग्राम मुजराढ़, जिला रोहतास का निवासी बताते हुए उन्हें सोनार जाति का सदस्य बताया गया है। सिंचाई विभाग में पेट्रोल (अमीन) के पद पर सरकारी नौकरी करने की बात कही है।

हालांकि श्री दीपक को आरटीआई के तहत गंगा पंप नहर प्रमंडल चौसा-बक्सर के कार्यपालक अभियंता द्वारा उपलब्ध करायी गयी जानकारी में सेवा पुस्तिका में सूर्यदेव राम को अनुसूचित जाति का सदस्य बताया गया था।

सूर्यदेव राम की जाति को ले विरोधाभाषी बयानों का मामला मुख्यमंत्री दरबार तक पहुंचा हुआ है। सूचना की मांग करने वाले दीपक कहते हैं कि धर्मदेव राम पर पहले से भी कई मामले चल रहे हैं। 1993 से महादलित के नाम पर नौकरी कर रहे हैं। दूसरी ओर सूर्यदेव राम ने सीओ की रिपोर्ट को गलत बताते हुए कहा कि वे अनुसूचित जाति के ही सदस्य हैं।-01.03.2012 07:33 PM (IST) जागरण

Friday, February 10, 2012

राजस्थान रायल्स पर पुलिस का 4.5 करोड़ बकाया.

राजस्थान क्रिकेट संघ और आईपीएल टीम राजस्थान रायल्स पर राज्य पुलिस का साढ़े चार करोड़ रुपए बकाया है.

यह बकाया आईपीएल मैचों के दौरान सुरक्षा इंतजामों राजस्थान रायल्स पर हुआ था.

राजस्थान पुलिस ने एक आरटीआ ई के जवाब में कहा कि राजस्थान क्रिकेट संघ सचिव पर 3.98 करोड़ रुपया बकाया है जबकि अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी और उनके पति राज कुंद्रा की आईपीएल टीम पर 50.99 लाख रुपए बकाया है.

आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल से मिले जवाब में कहा गया कि राजस्थान क्रिकेट संघ ने 2006 में चैम्पियंस ट्राफी मैचों के दौरान पुलिस की सेवाएं ली थी जिसके 1.14 करोड़ रुपए बकाया है.

इसके अलावा 21 फरवरी 2010 को भारत और दक्षिण अफ्रीका के बीच हुए वनडे के 17.87 लाख और 2010 के आईपीएल मैचों के 83.60 लाख रुपए बकाया है. इसके अलावा भारत और न्यूजीलैंड के बीच एक दिसंबर 2010 को हुए मैच के 2.22 लाख और 2011 के आईपीएल मैचों के 1.79 करोड़ रुपए बकाया है. स्त्रोत : समय लाइव, १०.०२.२०१२

Thursday, February 9, 2012

नगर पंचायत की बढ़ी मुश्किलें, आरटीआई के तहत मांगी जानकारी

दाउदनगर (औरंगाबाद-बिहार), जागरण प्रतिनिधि : बुधवार को जमीन साठ हजार की, निबंधन शुल्क छह लाख शीर्षक से छपी खबर का असर यह हुआ कि आरटीआई कार्यकर्ता बसंत कुमार ने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत नगर पंचायत से जमीन संबंधित ब्यौरा मांगा है। इसी खबर में नपं की लापरवाही से बढ़ा सिरदर्द बाक्स रिपोर्ट छपी थी। आररटीआई कार्यकर्ता ने बुधवार को ही नगर पंचायत को आवेदन देकर नगर पंचायत का कुल क्षेत्रफल व जनसंख्या का ब्यौरा मांगा है। साथ ही नगर पंचायत अंतर्गत जमीनों का वर्गीकरण (वाणिज्य, आवासीय, कृषि योग्य, बलुई, वीट व परती) कार्यक्षेत्र किन पदाधिकारी और कर्मचारी का है की जानकारी मांगी है।

वर्गीकरण हेतु जिम्मेवार पदाधिकारी का नाम व पता उपलब्ध कराया जाए। इन जमीनों के ब्यौरे के साथ खाता, प्लाट, वार्ड संख्या का ब्यौरा भी उपलब्ध कराने को कहा गया है। नगर पंचायत के लिए ऐसी सूचना उपलब्ध कराना काफी मुश्किल होगा, क्योंकि नगर पंचायत में कर्मचारियों का अभाव तो है ही जो हैं भी वे कर्मठ नहीं माने जाते। बता दें कि प्रकाशित खबर में कहा गया था कि शहरी क्षेत्र में कृषि योग्य बलुई और वीट की हजारों एकड़ जमीन है, लेकिन सरकार के न्यूनतम मूल्य पंजी में इस तरह की जमीनों का कोई जिक्र नहीं है। नतीजा शहर की तमाम जमीनों को वाणिज्य और आवासीय मान ली गई है। स्त्रोत : जागरण Updated on: Thu, 09 Feb 2012 06:41 PM (IST)

Thursday, January 26, 2012

आरटीआई की ताकत को पहचाना!

कार्यालय संवाददाता, होशियारपुर, पंजाब| कार्यपालिका की कार्यप्रणाली के सुधार के लिए वैसे तो विभिन्न सामाजिक संगठन अपना उम्दा योगदान दे रहे हैं। वहीं एक ऐसा संगठन भी है जो कार्यपालिका के कार्यपालिका की जवाबदेही के लिए कार्यशैली में सवंर्धन की कोशिश में जुटा है। हेल्प संस्था ने व्यवस्था में पारदर्शिता के लिए सूचना के अधिकार को अपनी ताकत बनाया और कार्यपालिका की कमियों को सामने लाकर उसमें सुधार के लिए प्रयास भी किए।

सूचना अधिकार एक्ट 2005 को छठा वर्ष चल रहा है। लोगों को उनकी ताकत के बारे में अवगत करवाने में सामाजिक संस्था ह्यूंमन इंपावरमेंट लीग आफ पंजाब (हेल्प) ने अपने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वर्ष 2007 में 11 मित्रों की सामाज के लिए कुछ करने की चाहत ने संस्था हेल्प को जन्म दिया। संस्था के चेयरमैन गुरवीर सिंह मेकेनिकल इंजीनियर हैं। इसके अलावा दीपक बाली अध्यक्ष व परविंदर सिंह कितना महासचिव बने। इन्होंने मानवाधिकार, सूचना के अधिकार व उन मुद्दों को जिनको कि इग्नोर कर दिया जाता था या उन पर सरकार या विभाग काम नहीं करना चाहती थी ऐसे इशू उठाने शुरू कर दिए।

संस्था के महासचिव परविंदर सिंह कितना बताते हैं कि सूचना के अधिकार से पहले बार वे तब रूबरू हुए जब उन्होंने नवांशहर के एसएसपी को रजिस्टर्ड शिकायत भेजी जोकि उनको वापस आ गई। ऐसी ही एक शिकायत जब उनके दोस्त को वापिस आई तो उन्होंने आरटीआई के माध्यम से विभाग से पूछा कि तीन महीनों में उन्होंने कितनी शिकायतें स्वीकार की हैं। जब जवाब आया तो पता चला कि तीन महीने में 72 रजिस्टर्ड पत्र स्वीकार नहीं किए गए। इस मामले को समाचार पत्रों ने प्रमुखता से उठाया और बाद में संबंधित एसएसपी ने पत्र स्वीकार करने शुरू कर दिए।

अब हमें अहसास होने लगा कि सूचना का अधिकार लोगों को न्याय दिलाने में अहम भूमिका अदा कर सकता है। फिर तो हमने जन हित मामले उठाने शुरू कर दिए। विधायक विधानसभा में क्या-क्या और कितने सवाल पूछते हैं यह लोगों को पता चलने लगा।

एक बार उनकी तरफ से आरटीआई डालकर विधान सभा की गाड़ियों के कागजात का ब्यौरा मांग गया। जब जानकारी आई तो पता चला कि विधानसभा की 158 गाड़ियों का प्रदूषण सर्टिफिकेट नहीं बना था। यह मामला जब समाचार पत्रों में आया तो विधानसभा ने इन गाड़ियों के सभी ड्राइवरों का वेतन तब तक के लिए रोक लिया जब तक वे उस गाड़ी का प्रदूषण सर्टिफिकेट नहीं बना लेते। इस तरह की जानकारी जब लोगों के सामने आती है तो जनता को लगता है कि आरटीआई एक सशक्त माध्यम हैं जो उनको इंसाफ दिला सकता है।

आरटीआई की असली ताकत का उन्हें तब पता चला जब एक रिटायर्ड आईएएस के खिलाफ विजिलेंस जांच के बाद मामला दर्ज हुआ।

भगत सिंह के जन्म दिन पर करवाए समारोह के लिए तीन करोड़ 79 लाख की ग्रांट आई थी। जानकारी लेने पर उन्हें पता चला कि इस ग्रांट में 1 करोड़ 43 लाख रुपये का घपला हुआ है। मामले को जब उन्होंने उठा कर विजिलेंस जांच करवाई और विजिलेंस ने जांच के बाद रिटा. आईएएस अधिकारी के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया। यह मामला अभी कोर्ट में विचाराधीन है।

इस तरह अनेक ऐसे जनहित के मुद्दे हैं जोकि संस्था की ओर से उठाए गए जिसके समाज में सकारात्मक परिणाम देखने को भी मिले। कितना ने बताया कि लोगों के फोन व पत्र व्यवहार से उनको पता चलता है कि संस्था सरकारी काम में सकारात्मक बदलाव में अहम भूमिका अदा कर रही है।-Jagran, Updated on: Sun, 22 Jan 2012 09:50 PM (IST)

आरटीआई को हथियार बना बदला सिस्टम

राजेश योगी, जालंधर, पंजाब| कहने को तो वह एडवोकेट हैं, मगर उनका नाम वकील के तौर पर कम आरटीआई एक्टिविस्ट के तौर पर ज्यादा जाना जाता है। एडवोकेट राजिंदर भाटिया एक ऐसे शक्स हैं, जिन्होंने राइट टू इंफार्मेशन एक्ट को लेकर सूबे में नए आयाम स्थापित करने की कोशिश की।

एजुकेशन सिस्टम हो या जेलों में अव्यवस्था, जिमखाना जैसा क्लब हो या एपीजे जैसी संस्था आरटीआई के दायरे में लाकर उन्हें सिस्टम बदलने को मजबूर कर दिया। भाटिया के साथ साल 2005 में ऐसा वाक्या हुआ कि उन्होंने आरटीआई को हथियार बनाया व फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। इस दौरान 2010 दिसंबर में पब्लिक रिसर्च फाउंडेशन दिल्ली की ओर से उप राष्ट्रपति हमीद अंसारी ने उन्हें अवार्ड आफ एप्रीसिएशन से नवाजा। एडवोकेट राजिंदर भाटिया का मानना है कि देश चाहे 1947 में आजाद हुआ था, मगर तब आम आदमी के हाथ कुछ नहीं था। 2005 में आरटीआई एक्ट के रूप में जनता के हाथ ऐसी ताकत लगी है, जो लोकतंत्र की असली पहचान बनी है।

इसी कड़ी में उन्होंने एनेराइजिंग इंडिया नामक एक स्वयंसेवी संस्था भी गठित की, जो आरटीआई एक्ट की जागरूकता के साथ लोगों को कानूनी सहायता भी उपलब्ध करवाने में सहायता प्रदान करती है। डाकखाने में 20 हजार से ज्यादा की पेमेंट उनकी बिना मर्जी के एजेंट ने विद ड्रा करवा ली थी। इस मामले में भाटिया ने आरटीआई एक्ट का सहारा लिया। इसके बाद एपीजे कालेज, जिमखाना क्लब, नगर निगम, जेलों, किन्नरों के वेलफेयर, नेशनल सिक्योरिटी, आटो में बच्चों को ले जाने के मापदंडों के अलावा 1400 से ज्यादा आरटीआई एप्लीकेशन लगाई। इसी आरटीआई के तहत जहां इनकम टैक्स रिकवरी में कुछ फेरबदल किए गए, वहीं डाक विभाग में 12 लोगों को चार्जशीट भी करवाया गया। जेल में कैदियों की हालात को लेकर किए गए काम के चलते ही नई जेल का निर्माण हो सका। भाटिया ने सिविल अस्पताल में पब्लिक रिलेशन आफिसर लगवाने से लेकर पुडा में अपीलिंग अथारिटी लगवाने की भी कोशिश की।-Jagran, Updated on: Mon, 23 Jan 2012 01:59 AM (IST)

बीडीओ से हारे पंचायत प्रतिनिधियों ने लिया आरटीआई का सहारा!

दुमका, झारखंड| निज प्रतिनिधि : पंचायत समिति सदस्य संघ दुमका प्रखंड द्वारा 26 दिसम्बर 2011 को प्रखंड विकास पदाधिकारी को एक नौ सूत्री ज्ञापन देकर विकास योजनाओं से संबंधित जानकारी मांगी गयी थी। लेकिन अभी तक संघ को किसी प्रकार की जानकारी नहीं दी गयी है। इस पर गुस्साये संघ के अध्यक्ष जर्नादन हांसदा, सचिव मो.शाहनबाज आजम, उपाध्यक्ष सुशांति किस्कु, कोषाध्यक्ष सुबान सोरेन एवं सनातन मुर्मू सहित 14 सदस्यों ने इस बार सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत जन सूचना पदाधिकारी सह प्रखंड विकास पदाधिकारी को एक आवेदन देकर जानकारी मांगी है। संघ के कोषाध्यक्ष श्री सोरेन ने यह जानकारी देते हुए कहा कि प्रखंड विकास पदाधिकारी श्याम नारायण राम ने जन प्रतिनिधियों की गरिमा को ठेस पहुंचाने का काम किया गया है जिसकी शिकायत उच्चाधिकारियों के साथ सूबे के मुख्यमंत्री व उप मुख्यमंत्री से भी की जायेगी।-JagranUpdated on: Sun, 22 Jan 2012 08:24 PM (IST)

सूचना अधिकार के तहत मांगी जानकारी

खगडि़या-बिहार| महेशखूंट प्रतिनिधि: मैरा पंचायत के मुखिया अमरजीत यादव ने डीएम को डाक के द्वारा आवेदन प्रेषित कर सूचना अधिकार के तहत जानकारी मांगी है। आवेदन पत्र मुखिया द्वारा गोगरी प्रखंड के मैरा पंचायत अंतर्गत प्राथमिक विद्यालय, सत्यनारायण वासा की स्थापना पंचायत के कितने नंबर वार्ड में की गई है की जानकारी मांगी गई है। यदि विद्यालय को जमीन उपलब्ध कराई गई है तो वह किस मौजे में है। उसका खाता संख्या, खेसरा संख्या क्या है। यह भी मांगा गया है कि उक्त जमीन आबादी से कितनी दूर है। दूरी किमी या मीटर में मांगी गई है। सूत्रों के मुताबिक उक्त विद्यालय मुखियाजी के पंचायत में शिक्षा विभाग के पंजी पर तो चल रहा है। किन्तु मुखिया अमरजीत यादव को उक्त विद्यालय पंचायत में ढूढ़े नहीं मिल रहा है। परेशान मुखिया ने अंतत: सूचना अधिकार के तहत सूचना मांगी है, ताकि पंचायत में उन्हें विद्यालय मिल जाए।Jagran, Updated on: Tue, 17 Jan 2012 10:33 PM (IST)

Tuesday, January 10, 2012

आरटीआई के जरिए मांगी जानकारी न देने पर डीटीओ को जुर्माना

कार्यालय प्रतिनिधि, मानसा! जिला उपभोक्ता फोरम मानसा (पंजाब) ने एक व्यक्ति द्वारा जिला ट्रांसपोर्ट अफसर (डीटीओ) से आरटीआई के जरिए मांगी गई जानकारी न देने पर संबंधित अफसर को 10 हजार रुपये का जुर्माना व शिकायतकर्ता द्वारा मांगी सूचना देने का फैसला सुनाया है।

मानसा निवासी अलविंदर गोयल ने 8 नवंबर, 2011 को जिला उपभोक्ता फोरम में शिकायत करके जिला ट्रांसपोर्ट अफसर मानसा द्वारा उनको आरटीआई के जरिए मांगी जानकारी न देने की शिकायत दर्ज करवाई। जिसका फैसला सुनाते हुए जिला उपभोक्ता फोरम के अध्यक्ष एसडी शर्मा, सदस्य नीना गुप्ता व शिव पाल बंसल ने जिला ट्रांसपोर्ट अफसर को 10 हजार रुपये जुर्माना व शिकायतकर्ता द्वारा मांगी गई जानकारी देने का हुक्म सुनाया है।
Posted on: Fri, 06 Jan 2012 10:35 PM (IST) in Jagran

Monday, January 9, 2012

स्कूलों-कॉलेजों में होगी आरटीआई की पढ़ाई

प्रमुख संवाददाता ॥ चंडीगढ़ 
हरियाणा केस्कूलों और कॉलेजों में अब राइट टू इन्फर्मेशन (आरटीआई) का एक चैप्टर पढ़ाया जाएगा। स्कूलों और कॉलेजों के कोर्स में इसे शामिल करने की जानकारी शनिवार को मुख्य सचिव उर्वशी गुलाटी ने दी। 
गुलाटी ने बताया कि स्कूलों और कॉलेजों में चैप्टर शुरू करने का सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि बच्चे इसके महत्व को समझेंगे, जिससे आगे चलकर प्रशासन को भी मदद मिलेगी। उन्होंने कहा कि इसका मकसद युवा पीढ़ी को जागरूक करना है। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार ने आरटीआई की बाबत कई कदम उठाए हैं। उन्होंने कहा कि ऐप्लिकेशनों के सभी फॉर्मेट और सार्वजनिक सुविधा की जानकारी वेबसाइट www.rti.gov.in पर दी गई है। आरटीआई अधिनियम-2005 के तहत ऐप्लिकेशन देने में लोगों को सुविधा हो, इसके लिए वेबसाइट को नियमित रूप से डिवेलप किया जा रहा है। मुख्य सचिव के दफ्तर में एक आरटीआई सेल भी बनाई गई है। इसका मुख्य काम अन्य विभागों के साथ आरटीआई से जुड़े कामकाज में तालमेल बनाना है। 

मुख्य सचिव ने कहा कि अमूमन सभी विभागों ने अपने नोडल पीआईओ (पब्लिक इन्फर्मेशन ऑफिसर) नामजद किए हुए हैं। उन्होंने कहा कि प्रदेश के सभी विभागों को अपने सिटिजन चार्टर तैयार करने के लिए भी कहा गया है ताकि लोगों को सर्विस दिलवाने के मामले में और सुधार लाया जा सके। अब तक 111 विभागों और संगठनों के सिटिजन चार्टर बनाए जा चुके हैं। शेष विभागों और संगठनों के सिटिजन चार्टर पर काम चल रहा है। संबंधित विभागों और संगठनों को निर्देश दिए गए हैं कि वे सभी स्तर पर अपने दफ्तरों के नोटिस बोर्ड पर इसे लगाएं। उन्हें अन्य उपयुक्त उपाय जैसे कि एन्युअल रिपोर्ट, उपभोक्ता समूह, वेबसाइट आदि के उपायों को भी अपनाने के लिए कहा गया है, ताकि सिटिजन चार्टर जनता के ध्यान में लाया जा सके। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार नागरिकों को तयशुदा समय में सेवाएं मुहैया करवाने पर जोर दे रही है। इसके लिए 36 सेवाओं की पहचान कर ली गई है। निश्चित समय के भीतर नागरिकों को सेवाएं मुहैया कराने का फैसला किया गया है। 

सूचना न देने पर आरटीए कार्यालय पर जुर्माना

हासी, संवाद सहयोगी : सूचना का अधिकार कानून के तहत पूरी जानकारी न देने पर मुजादपुर गाव के जयप्रकाश ने शिकायत की थी। इसके बाद हिसार के प्रादेशिक परिवहन कार्यालय पर 25 हजार रुपये का जुर्माना किया गया है। आरटीआई के चीफ कमीश्नर ने शिकायतकर्ता को खर्च के तौर पर एक हजार रुपये का भुगतान करने के भी निर्देश दिए है।
शिकायतकर्ता जयप्रकाश ने बताया कि उन्होंने 9 सितंबर 2010 को विभाग से हासी-नलवा रूट पर चलने वाली सहकारी परिवहन समिति की बसों के बारे में जानकारी मागी थी। विभाग द्वारा उसे बार-बार गलत जानकारी दी गई। इसके बाद उन्होंने इसकी शिकायत चंडीगढ़ में परिवहन कमिश्नर को की। जयप्रकाश ने बताया कि उनकी शिकायत पर कार्रवाई करते हुए विभाग पर 25 हजार रुपये का जुर्माना ठोंका गया है। हर्जाने के तौर पर उन्हे एक हजार रुपये देने का भी आदेश दिया गया है। विभाग की ओर से उन्हे एक हजार रुपये का चेक मिल चुका है। हर्जाने की बाकी राशि का भुगतान विभाग द्वारा अधिकारी के वेतन से काटा जाएगा।-जागरण, Posted on: Mon, 09 Jan 2012 01:38 AM (IST)

Thursday, December 22, 2011

मायावती के ऑफिस का आरटीआई के तहत जानकारी देने से इनकार!

नई दिल्ली। सूचना का अधिकार कानून के तहत विशेष कार्यबल (एसटीएफ) के छह कमांडोज के परिजनों को दिए गए मुआवजे के बारे में मांगी गई जानकारी देने से इनकार करते हुए उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती के कार्यालय ने एक आश्चर्यजनक दलील दी है। 

उनके कार्यालय का कहना है कि ठोकिया गैंग से मुठभेड़ में शहीद हुए एसटीएफ के छह कमांडोज के परिजनों को कितना मुआवजा दिया गया, इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी जा सकती, क्योंकि यह जानकारी एक वकील ने मांगी गई है। हालांकि मुख्य सूचना आयुक्त सत्यानंद मिश्र ने राज्य सरकार की इस दलील को गलत करार दिया है। उत्तर प्रदेश के जेपी नगर के वकील सुरमित कुमार गुप्ता ने 22 जुलाई, 2007 को बांदा में डकैत ठोकिया गैंग के साथ मुठभेड़ में मारे गए एसटीएफ के छह कमांडोज के परिवार वालों को दिए गए मुआवजे के बारे में मुख्यमंत्री कार्यालय से आरटीआई के तहत जानकारी मांगी थी। मुठभेड़ के बाद मुख्यमंत्री ने प्रत्येक शहीद कमांडो के परिजन को पांच-पांच लाख रूपए देने की घोषणा की थी। यह देश की सेवा में प्राण गंवाने पर दी जाने वाली दस लाख रूपए की धनराशि के अतिरिक्त थी। गुप्ता ने मुख्यमंत्री कार्यालय से जानकारी मांगी थी कि क्या मायावती ने ऐसी कोई घोषणा की थी? मुठभेड़ के चार वर्ष बीत जाने के बाद क्या मुआवजा दे दिया गया है? इस पर मुख्यमंत्री कार्यालय की ओर से कहा गया कि आवेदक ने एक वकील के तौर पर जानकारी मांगी है, इसलिए यह सवाल आरटीआई कानून के तहत नहीं आता है। उत्तर प्रदेश सरकार की इस दलील से सत्यानंद मिश्र सहमत नहीं हैं।-Prathkaal, WEDNESDAY, 21 DECEMBER 2011 03:35

Monday, December 19, 2011

आरटीआई कानून आने के बाद निगरानी से बढ़ी जवाबदेही!

यह महज संयोग ही था कि मैंने सूचना और उस तक लोगों की पहुंच के अधिकार की शक्ति को महसूस किया. घटना 2001 की है. दिल्ली के एक बहुत परेशान नागरिक अशोक गुप्ता एक दिन परिवर्तन में आए.
परिवर्तन एक एनजीओ है जिसका गठन हमने 2000 में शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए किया था. गुप्ता को दो साल से बिजली का कनेक्शन नहीं मिला था क्योंकि उन्होंने दिल्ली विद्युत बोर्ड के अधिकारियों को घूस देने से मना कर दिया था.
हमने उन्हें दिल्ली सरकार के नवप्रभावी सूचना का अधिकार (आरटीआइ) कानून के तहत आवेदन करने की सलाह दी. दिल्ली सरकार ने केंद्र सरकार से चार साल पहले 2001 में आरटीआइ लागू किया था. आरटीआइ की शक्ति आजमाने का यही मौका था.
गुप्ता आरटीआइ के जरिए दिल्ली विद्युत बोर्ड के उन अधिकारियों के नाम जानना चाहते थे जो उनके आवेदन को दबाकर बैठे हुए थे. उन्हें नाम तो नहीं मिले, लेकिन उनके यहां बिजली का कनेक्शन तुरंत लग गया. इससे मुझे पता चला कि नागरिकों के सशक्तीकरण के कितने फायदे हैं. मैं लंबी छुट्टी पर चला गया और आरटीआइ के लिए जोर-शोर से अभियान चलाने लगा और फरवरी, 2006 में सरकारी नौकरी छोड़ दी.
इस बीच, केंद्र ने जून, 2005 में आरटीआइ कानून लागू कर दिया था. आरटीआइ के लिए देशभर में लंबे समय तक चले अभियान में एक्टिविस्ट अरुणा रॉय ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
सूचना के अधिकार को कानूनी मान्यता मिलने के बाद उसे लागू करने में हमें तीन दशक लगे. सन्‌ 1975 में सुप्रीम कोर्ट ने राजनारायण बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में फैसला दिया था कि अभिव्यक्ति के अधिकार में सूचना का अधिकार अंतर्निहित है. इसके बाद कई आंदोलन शुरू हो गए.
पहला आंदोलन '90 के दशक के शुरू में मजदूर-किसान शक्ति संगठन ने रॉय के नेतृत्व में राजस्थान के गांवों के खातों में पारदर्शिता लाने के लिए चलाया. '90 के दशक के मध्य में, महाराष्ट्र में अण्णा हजारे ने आंदोलन की अगुआई की. तमिलनाडु पहला राज्य था जिसने 1997 में आरटीआइ कानून लागू किया. इसके बाद दूसरे राज्यों ने अपना-अपना आरटीआइ कानून लागू किया.
आरटीआइ कानून के रूप में सामान्य लोगों को एक सशक्त और कारगर औजार मिल गया है. ऐक्टिविस्ट और एनजीओ आरटीआइ का इस्तेमाल सरकार की नीतियों और उनके कार्यान्वयन पर सवाल उठाने के लिए करते रहे हैं. इसने अधिकारियों की नींद हराम हो गई है.
सरकार का अब मानना है कि उसने आरटीआइ के रूप में अपने लिए एक बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी है जिससे सामान्य शासन का काम बाधित हो रहा है.
दरअसल, अधिकारी फाइलों पर कुछ लिखने और फैसले लेने से बचने लगे हैं. शुरू में आइबी, रॉ, राजस्व खुफिया तथा प्रवर्तन निदेशालय जैसी खुफिया एजेंसियों और केंद्रीय पुलिस संगठनों को ही इससे छूट मिली हुई थी. लेकिन अब कई अन्य एजेंसियां भी अपने को इस कानून के दायरे से बाहर रखने की मांग कर रही हैं.
हाल में सीबीआइ और आयकर विभाग की जांच शाखा को इससे छूट मिल गई. खुफिया इकाइयों को आरटीआइ से अलग रखा जा सकता है, लेकिन जांच शाखाओं को बिल्कुल नहीं.
आरटीआइ के पास सरकारी एजेंसियों पर चाबुक फटकारने की शक्ति है. इसलिए वे सभी इसका विरोध कर रही हैं. आरटीआइ अभी अपनी पूरी क्षमता हासिल नहीं कर पाया है.
समस्या यह है कि अपने राजनैतिक आकाओं के प्रति निष्ठावान सूचना आयुक्त इसकी राह में रोड़ा बने हुए हैं. आरटीआइ कानून अपनी पूरी क्षमता तभी हासिल कर सकता है जब तटस्थ और निष्पक्ष लोगों को सूचना आयुक्त और मुख्य सूचना आयुक्त नियुक्त किया जाए.
अरविंद केजरीवाल, आरटीआइ आंदोलन के नेताओं में शुमार रहे हैं. अब वे जन लोकपाल विधेयक के लिए लड़ रहे हैं. भावना विज अरोड़ा से बातचीत पर आधारित.-अरविंद केजरीवाल | सौजन्‍य: इंडिया टुडे | नई दिल्ली, 18 दिसम्बर 2011, AAj Tak

Sunday, December 18, 2011

सीआईसी, आरपीएससी सदस्य व एडीसी के खिलाफ जांच शुरू!


जयपुर। सूचना के अधिकार के तहत दायर अपील पर आदेश बदलने व दो आदेश निकालने के मामले में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने मुख्य सूचना आयुक्त टी. श्रीनिवासन, आरपीएससी सदस्य हबीब खान गौराण, राज्यपाल के एडीसी एच.जी.राघवेन्द्र सुहासा, पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त एम.डी. कौरानी समेत छह जनों के खिलाफ परिवाद दर्ज कर प्राथमिक जांच शुरू कर दी है।
ब्यूरो के महानिरीक्षक डी.सी. जैन के अनुसार बीकानेर की भ्रष्टाचार मामलात अदालत के आदेश पर परिवाद दर्ज कर लिया है और प्राथमिक जांच (पीई) शुरू कर दी है। सूचना का अघिकार कानून के तहत मुख्य सूचना आयुक्त के खिलाफ जांच की जा सकती है या नहीं, यह मुद्दा तो प्राथमिक जांच के बाद आएगा। प्रकरण का अनुसंधान अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक मनीष त्रिपाठी को सौंपा गया है। बीकानेर में भ्रष्टाचार मामलात की अदालत ने पिछले दिनों परिवादी गोवर्धन सिंह के परिवाद पर प्राथमिक सुनवाई के बाद भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो को राज्य के मुख्य सूचना आयुक्त टी.श्रीनिवासन, पूर्व आयुक्त एम.डी.कौरानी समेत छह अफसरों के खिलाफ जांच के आदेश दिए थे।
यह है मामला
गोवर्धन सिंह ने परिवाद में बताया कि पुलिस ने उसके खिलाफ झूठे मुकदमे दर्ज कर नियम विरूद्ध तरीके से हिस्ट्रीशीट खोल दी थी। बाद में पुलिस महानिदेशक ने सभी मामलों की पत्रावली सीआईडी (सीबी) से मंगवा ली। इस प्रकरण की सूचना लेने के लिए उसकी पत्नी सुशीला कंवर ने पुलिस महानिदेशक कार्यालय में आवेदन किया। लोक सूचना अधिकारी व प्रथम लोक सूचना अधिकारी द्वारा सूचना नहीं देने पर सूचना आयोग में अपील की गई।
आयोग ने अपील का निस्तारण करते हुए पुलिस महानिदेशक को 21 दिन में नि:शुल्क सूचना देने के आदेश सुनाए। परिवाद में आरोप लगाया कि मुख्य सूचना आयुक्त श्रीनिवासन व कौरानी ने बाद में पूर्व में सुनाए आदेश को बदल दिया। पुलिस कर्मियों को बचाने के लिए सूचना आयोग ने अन्य आरोपितों से मिलीभगत कर नया आदेश तैयार किया। परिवाद में बीकानेर में एएसपी सतीशचन्द्र जांगिड़, एएसपी (सतर्कता) ओमप्रकाश जांगिड़, पूर्व एसपी बीकानेर एच.जी. राघवेन्द्र सुहासा व हबीब खान गौराण व अन्य को आरोपी बनाया है।-राजस्थान पत्रिका १८.१२.२०११, 6:09:

आरटीआई से गर्ल्स स्कूल फंसे उलझन में!

राजकिशोर ॥ फरीदाबाद, जनसूचना अधिकार के अधिनियम 2005 के तहत एक गैर सरकारी संस्था ने स्कूल के सभी बच्चों के घर के पते के साथ ही उनका या उनके माता-पिता का मोबाइल नंबर या लैंडलाइन नंबर मांगा है। इस तरह सूचना मांगे जाने से गर्ल्स स्कूलों के प्रिंसिपल परेशान हैं। यही नहीं एनजीओ ने सीधे स्कूलों के प्रिंसिपलों को फोन कर 3 दिन के अंदर पूरा डेटा देने का दबाव डाला है। ऐसे में गर्ल्स स्कूल के प्रिंसिपल परेशान हैं कि आखिर लड़कियों के घर का पता और फोन नंबर वह मुहैया करा सकते हैं या नहीं। 

एनआईटी स्थित एक गर्ल्स स्कूल की प्रिंसिपल ने बताया कि दिल्ली की एक एनजीईओ के पदाधिकारी का फोन आया था, उसने स्कूल का एड्रेस मांगने के साथ ही स्कूल में पढ़ने वाली सभी लड़कियों का फुल एड्रेस और उनके फोन नंबर भी मांगे। यही नहीं एनजीओ की ओर से इसका पूरा फॉरमेट भेजा गया है। साथ ही जिला शिक्षा कार्यालय का पत्र भी दिखाया है। जबकि स्कूल को जिला शिक्षा कार्यालय की ओर से डेटा उपलब्ध कराने को लेकर कोई दिशा निर्देश नहीं मिला है। इस बारे में जब जिला शिक्षा अधिकारी राजीव कुमार से पूछा गया तो उन्होंने बताया कि आरटीआई के तहत किसी ने बच्चों की संख्या के बारे में जानकारी मांगी है। अगर एनजीओ लड़कियों के फोन नंबर और एड्रेस मांग रहा है, तो स्कूल प्रिंसिपल यह जानकारी न दें। उपलब्ध न करवाएं। जिला शिक्षा कार्यालय की ओर से न तो स्कूलों के प्रिंसिपल का नंबर दिया गया है और न ही एनजीओ को स्कूल प्रिंसिपलों से स्कूल के बच्चों के एड्रेस और मोबाइल नंबर लेने को कहा गया है। अगर स्कूल प्रिंसिपल की ओर से ऐसी कोई भी शिकायत आती है, तो कानूनी कार्रवाई भी की जा सकती है।-Nav Bharat Times 17 Dec 2011, 0400 hrs IST

Saturday, December 17, 2011

सूचना मांगने पर नौकरी से निकालने की धमकी

वाराणसी। डीजल रेल इंजन कारखाना मे सूचना के बदले अफसर ने एक कर्मचारी को नौकरी से निकालने की धमकी दी। परेशान कर्मचारी ने विभागीय अफसरों के साथ डीआईजी से लिखित शिकायत कर गुहार लगाई है। वहीं डीरेका प्रशासन ने इसे विभागीय मामला बताते हुए कुछ भी बोलने से इंकार कर दिया है।

डीरेका में इलेक्ट्रिशियन पद पर तैनात कर्मचारी अमर सिंह ने पुलिस उप महानिरीक्षक को भेजे शिकायत पत्र में बताया है कि छह दिसंबर 2011 को कुछ सूचनाएं प्राप्त करने के लिए जन सूचना अधिकार के तहत आवेदन किया था। इसके बाद 11 दिसंबर 2011 को सीएमई (प्रोडक्शन) विवेक कुमार ने अपने कक्ष में बुलाया। वहां पहुंचने पर सीएमई ने डांटना-फटकारना शुरू किया। लिखा है कि उन्होंने मानसिक रूप से प्रताडि़त करने के साथ नौकरी से निकालने की धमकी भी दी। कर्मचारी ने डीआईजी से कानूनी संरक्षण प्रदान करने की मांग की है। इस मामले में विवेक कुमार का पक्ष जानने की कोशिश की गई, लेकिन उन्होंने कुछ भी कहने से इंकार कर दिया। वहीं मुख्य जनसंपर्क अधिकारी शिवेंद्र मोहन का कहना है कि यह विभागीय मामला है। इस मामले में बाहर बाहर ले जाने की बजाय यहीं सुलझाना चाहिए। पीडि़त कर्मचारी अमर सिंह ने बताया कि मामले की शिकायत डीरेका महाप्रबंधक के साथ मानवाधिकार आयोग एवं केंद्रीय सूचना आयोग से भी की गई है।-Amar Ujala, Story Update : Saturday, December 17, 2011 1:43 AM

Friday, December 16, 2011

सूचना का अधिकार अधिनियम में तीन संशोधन!

डॉ. पुरुषोत्तम मीणा ‘निरंकुश’

प्रारम्भ में जब सूचना अधिकार कानून की लड़ाई लड़ी जा रही थी तो आम लोगों को इस कानून से भारी उम्मीद थी| लेकिन जैसे ही इस कानून से सच्चाई बाहर आत दिखी तो अफसरशाही ने इस कानून की धार को कुन्द करने के लिये नये-नये रास्ते खोजना शुरू कर दिये| जिसे परोक्ष और अनेक बार प्रत्यक्ष रूप से न्यायपालिका ने भी संरक्षण प्रदान किया है| अन्यथा अकेला सूचना का अधिकार कानून ही बहुत बड़ा बदलाव ला सकता था| एक समय वाहवाही लूटने वाले सत्ताधारी भी इस कानून को लागू करने के निर्णय को लेकर पछताने लगे हैं| जिसके चलते इस कानून को भोथरा करने के लिये कई बार इसमें संशोधन करने का दुस्साहस करने का असफल प्रयास किया गया| जिसे इस देश के लोगों की लोकतान्त्रिक शक्ति ने डराकर रोक रखा है|

इसके बावजूद भी सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 को सही तरह से लागू करने और सच्चे अर्थों में क्रियान्वित करने के मार्ग में अनेक प्रकार से व्यवधान पैदा किये जा रहे हैं| अधिकतर कार्यालयों में जन सूचना अधिकारियों द्वारा मूल कानून में निर्धारित 30 दिन में सूचना देने की समय अवधि में जानबूझकर और दुराशयपूर्वक आवेदकों को उपलब्ध होने पर भी सूचना उपलब्ध नहीं करवाई जाती है या गुमराह करने वाली या गलत या अस्पष्ट सूचना उपलब्ध करवाई जाती है|

जन सूचना अधिकारियों द्वारा निर्धारित 30 दिन की समयावधि में सही/पूर्ण सूचना उपलब्ध नहीं करवाये जाने के मनमाने, गलत और गैर-कानूनी निर्णय का अधिकतर मामले में प्रथम अपील अधिकारी भी आंख बन्द करके समर्थन करते हैं| ऐसे अधिकतर मामलों में केन्द्रीय/राज्य सूचना आयोगों द्वारा लम्बी सुनवाई के बाद आवेदकों को चाही गयी सूचना प्रदान करने के आदेश तो दिये जाते हैं, लेकिन जानबूझकर निर्धारित 30 दिन की समयावधि में सूचना उपलब्ध नहीं करवाने के दोषी जन सूचना अधिकारियों तथा उनका समर्थन करने वाले प्रथम अपील अधिकारियों के विरुद्ध कठोर रुख अपनाकर दण्डित करने के बजाय नरम रुख अपनाया जाता है| 

जिसके चलते सूचना आयोगों में द्वितीय अपीलों की संख्या में लगातार बढोतरी हो रही है| सूचना का अधिकार कानून में निर्धारित आर्थिक दण्ड अधिरोपित करने के मामले में सूचना आयोग को अपने विवेक का उपयोग करके कम या अधिक दण्ड देने की कोई व्यवस्था नहीं होने के उपरान्त भी केन्द्रीय और राज्य सूचना आयोगों द्वारा अपनी पदस्थिति का दुरुपयोग करते हुए अधिकतर मामलों में निर्धारित दण्ड नहीं दिया जा रहा है| अधिक दण्ड देने का तो सवाल ही नहीं उठता| यहॉं तक कि यह बात साफ तौर पर प्रमाणित हो जाने के बाद भी कि प्रारम्भ में सूचना जानभूझकर नहीं दी गयी है| जन सूचना अधिकारियों के विरुद्ध अनुशासनिक कार्यवाही की अनुशंसा नहीं की जा रही हैं| यही नहीं ऐसे मामलों में भी प्रथम अपील अधिकारी अपनी जिम्मेदारी से पूरी तरह से बचे हुए हैं| उन्हें दण्डित किये बिना, उनसे उनके दायित्वों का निर्वाह करवाना लगभग असम्भव है| इस वजह से भी केन्द्रीय व राज्यों के सूचना आयोगों में अपीलों का लगातार अम्बार लग रहा है|

इन हालातों में यह बात साफ तौर पर कही जा सकती है कि सूचना का अधिकार कानून के तहत आवेदकों को सही समय पर सूचना नहीं मिले, इस बात को परोक्ष रूप से सूचना आयोग ही प्रोत्साहित कर रहे हैं| मूल अधिनियम में सूचना आयोगों के लिये द्वितीय अपील का निर्णय करने की समय सीमा का निर्धारण नहीं किया जाना भी इसकी बड़ी वजह है|

यदि जन सूचना अधिकारी एवं उनके गलत निर्णय का समर्थन करने के दोषी पाये जाने वाले सभी प्रथम अपील अधिकारियों को भी अधिकतम आर्थिक दण्ड 25000 रुपये से दण्डित किये जाने के साथ-साथ निर्धारित अवधि में अनुशासनिक कार्यवाही किये जाने की अधिनियम में ही स्पष्ट व्यवस्था हो और सूचना आयोगों द्वारा इसका काड़ाई से पालन किया जावे तो 90 प्रतिशत से अधिक आवेदकों को प्रथम चरण में ही अधिकतर और सही सूचनाएँ मिलने लगेंगी| इससे सूचना आयोगों के पास अपीलों में आने वाले प्रकरणों की संख्या में अत्यधिक कमी हो जायेगी| जिसका उदाहरण मणीपुर राज्य सूचना आयोग है, जहॉं पर सूचना उपलब्ध नहीं करवाने के दोषी जन सूचना अधिकारियों पर दण्ड अधिरोपित करने में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाता है, जिसके चलते मणीपुर राज्य सूचना आयोग में अपीलों की संख्या चार अंकों में नहीं है| अधिकतर मामलों में जन सूचना अधिकारी ही सूचना उपलब्ध करवा देते हैं|

दूसरा यह देखने में आया है कि लम्बी जद्दोजहद के बाद यदि केन्द्रीय/राज्य सूचना आयोगों द्वारा आवेदक को सूचना प्रदान करने का निर्देश जारी कर भी दिया जाता है तो ब्यूरोक्रट्स हाई कोर्ट/सुप्रीम कोर्ट की शरण में चले जाते हैं| जहॉं पर मामले में सूचना नहीं देने के लिये स्थगन आदेश मिल जाता है और अन्य मामलों की भांति ऐसे मामले भी तारीख दर तारीख लम्बे खिंचते रहते हैं, जिससे सूचना अधिकार कानून का मकसद ही समाप्त हो रहा है| इस प्रक्रिया की आड़ में भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट्स अपने काले कारनामों को लम्बे समय तक छिपाने और दबाने में कामयाब हो रहे हैं|

अत: बहुत जरूरी है कि सूचना अधिकार से सम्बन्धित जो भी मामले हाई कोर्ट/सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश हों उनमें सुनवाई और निर्णय करने की समयावधि निर्धारित हो| इस व्यवस्था से कोर्ट की आड़ लेकर सूचना को लम्बे समय तक रोकने की घिनौनी तथा गैर-कानूनी साजिश रचने वाले भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट्स की चालों से सूचना अधिकार कानून को बचाया जा सकेगा|

इस प्रकार सूचना का अधिकार कानून को अधिक पुख्ता बनाने के लिये सूचना का अधिकार आन्दोलन से जुड़े लोगों को इस बात के लिये केन्द्रीय सरकार पर दबाव डालना चाहिये कि संसद के मार्फत इस कानून में निम्न तीन संशोधन किये जावें :-

1. जन सूचना अधिकारी और प्रथम अपील अधिकारी के दोषी पाये जाने पर जो आर्थिक दण्ड दिया जायेगा, उसमें केन्द्रीय/राज्य सूचना आयोगों या न्यायालयों को विवेक के उपयोग करने का कोई अधिकार नहीं होगा| सूचना देने में जितने दिन का विलम्ब किया गया, उतने दिन का आर्थिक जुर्माना जन सूचना अधिकारियों और प्रथम अपील अधिकारियों को पृथक-पृथक समान रूप से अदा करना ही होगा| साथ ही दोषी पाये जाने वाले सभी जन सूचना अधिकारियों और सभी प्रथम अपील अधिकारियों के विरुद्ध भी अनिवार्य रूप से अनुशासनिक कार्यवाही की अनुशंसा भी की जाये| अनुशासनिक कार्यवाही की अनुशंसा करने का प्रावधान सूचना आयोगों के विवेक पर नहीं छोड़ा जाना चाहिये, क्योंकि जब सूचना नहीं दी गयी है तो इसे सिद्ध करने की कहॉं जरूरत है कि सूचना नहीं देने वाला जन सूचना अधिकारी अनुशासनहीन है| जिसने अपने कर्त्तव्यों का कानून के अनुसार सही सही पालन नहीं किया है, उस लोक सेवक का ऐसा कृत्य स्वयं में अनुशासनहीनता है, जिसके लिये उसे दण्डित किया ही जाना चाहिये| केवल इतना ही नहीं, अनुशासनहीनता के मामलों में सम्बन्धित विभाग द्वारा दोषी लोक सेवक के विरुद्ध अधिकतम एक माह के अन्दर निर्णय करके की गयी अनुशासनिक कार्यवाही के बारे में केन्द्रीय/राज्य सूचना आयोग को भी अवगत करवाये जाने की बाध्यकारी व्यवस्था होनी चाहिये| साथ ही ये व्यवस्था भी हो कि यदि सम्बन्धित विभाग द्वारा एक माह में अनुशासनिक कार्यवाही नहीं की जावे तो एक माह बाद सम्बन्धित सूचना आयोग को बिना इन्तजार किये सीधे अनुशासनिक कार्यवाही करने का अधिकार दिया जावे| जिस पर सूचना आयोग को अगले एक माह में निर्णय लेना बाध्यकारी हो| इसके अलावा विभाग द्वारा की गयी अनुशासनिक कार्यवाही के निर्णय का सूचना आयोग को पुनरीक्षण करने का भी कानूनी हक हो|

2. कलकत्ता हाई कोर्ट के एक निर्ण में की गयी व्यवस्था के अनुसार सूचना अधिकार कानून में द्वितीय अपील के निर्णय की समय सीमा अधिकतम 45 दिन निर्धारित किये जाने की तत्काल सख्त जरूरत है|

3. सूचना अधिकार कानून में ही इस प्रकार की साफ व्यवस्था की जावे कि इस कानून से सम्बन्धित जो भी मामले हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत हों, उनकी प्रतिदिन सुनवाई हो और अधिकतम 60 दिन के अन्दर-अन्दर उनका अन्तिम निर्णय हो| यदि साठ दिन में न्यायिक निर्णय नहीं हो तो पिछला निर्णय स्वत: ही क्रियान्वित हो| कोर्ट के निर्णय के बाद दोषी पाये जाने अधिकारियों के विरुद्ध जुर्माने के साथ-साथ कम से कम 9 फीसदी ब्याज सहित जुर्माना वसूलने की व्यवस्था भी हो|

यदि सूचना अधिकार आन्दोलन से जुड़े कार्यकर्ता इन विषयों पर जनचर्चा करें और जगह-जगह इन बातों को प्रचारित करें तो कोई आश्‍चर्य नहीं कि ये संशोधन जल्दी ही संसद में विचारार्थ प्रस्तुत कर दिये जावें| लेकिन बिना बोले और बिना संघर्ष के कोई किसी की नहीं सुनता है| अत: बहुत जरूरी है कि इस बारे में लगातार संघर्ष किया जावे और हर हाल में इस प्रकार से संशोधन किये जाने तक संघर्ष जारी रखा जावे|

Thursday, December 15, 2011

पोस्टल आर्डर की वैधता 24 माह तक!

सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत आवेदन-पत्रों के साथ शुल्क के रूप में संलग्न किये गये भारतीय पोस्टल आर्डरों पर छपी हुई ६ माह की परिपक्वता अवधि के आधार पर केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारियों द्वारा अस्वीकार कर आवेदक को लौटा दिया जाता है, वह सही नहीं है । प्रवर अधीक्षक डाकघर, जयपुर नगर मंडल, जयपुर ने बताया कि भारतीय डाक विभाग द्वारा १३ नवम्बर १९९५ को प्रकाशित राजपत्र के अनुसार पोस्टल आर्डरों की वैधता अवधि जारी करने के महीने के अंतिम दिन से २४ माह है । स्त्रोत : प्रेस नोट डोट इन, १५.१२.११ 

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